स्कारलेट
अतिथि देवोभव कह जिसका हम करते थे सत्कार
उसी अतिथि का किया तुने निर्ममता से बलातकार।
हे मनुवन्शी। कितना हो गया है तू पतित
उठ ! हिम्मत कर जरा झांक अपना अतीत।
कर दिया है तुने पूर्वजों का घोर तिरस्कार
तनिक भी नही है तुझे जीने का अधिकार।
हे परशुराम। प्रार्थना है पुनः जन्म लो
इस बार समस्त भारत का नाश कर दो।
उसी अतिथि का किया तुने निर्ममता से बलातकार।
हे मनुवन्शी। कितना हो गया है तू पतित
उठ ! हिम्मत कर जरा झांक अपना अतीत।
कर दिया है तुने पूर्वजों का घोर तिरस्कार
तनिक भी नही है तुझे जीने का अधिकार।
हे परशुराम। प्रार्थना है पुनः जन्म लो
इस बार समस्त भारत का नाश कर दो।
Labels: Hindi, Literature, Poem
1 Comments:
मैं उठा, मैंने अपना अतीत भी देखा... पर पाया की वहाँ तो हमेशा से ऐसा होता आया है... हर युग में ऐसा हुआ है... कल की बीती बात में से केवल गौरवान्वित करने वाली बातें ही याद रह जाती हैं... पर वास्तविकता कुछ और होती है.
और कलयुग में तो जनता ही जनार्दन है, तो फिर 'मैं ही परशुराम हूँ' ऐसी सोच रखने वाले बनो... पर भारत को नहीं भारत में बसी गंदगी को मिटाओ !
Post a Comment
Subscribe to Post Comments [Atom]
<< Home